शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

ग़ज़ल शब्द तंज तनाव

सन 80 के दशक में अहमद फराज़ की एक ग़ज़ल ‘‘शायद’’ ग़ुलाम अली और जगजीत सिंह दोनो ने गायी। इस उर्दु ग़ज़ल में ‘‘शायद’’ शब्द के उच्चारण में ‘‘द’’ को खींचना नहीं है, ऐसा ग़ुलाम अली कहते हैं, 
जबकि जगजीत ने इस ग़ज़ल को गाते समय ‘‘द’’ को रोका नहीं 
इसी बात को ग़ुलाम अली साहब ने पकड़ लिया और अपनी लगभग हर महफिल में ग़ुलाम अली इस ग़ज़ल को बिना फरमाईश के भी गाने लगे, ‘‘द’’ के ज़िक्र के सााथ। इसे एक तरह से जगजीत सिंह पर तंज की तरह, जगजीत सिंह जी के प्रेमियों ने लिया। महफिल दर महफिल ग़ुलाम अली साहब का ये फितूर बढ़ता चला गया और इसमें वो मसाला लगा-लगाकर बिना नाम लिये जगजीत जी का मज़ाक बनाते रहे। 
उनकी इन हरकतों से जगजीत के फैन्स और ख़ुद जगजीत सिंह व्यथित रहते थे। जगजीत जी से जब इस बारे में कोई सवाल करता तो वो खिन्न हो जाते, उन्होंने इसे गाना ही छोड़ दिया था.
उधर ग़ुलाम अली उन मंचों पर भी ये राग छेड़ने लगे जिन पर जगजीत सिंह को भी आना होता था। याद रहे जिस दिन जगजीत सिंह को ब्रेन हेमरेज़ हुआ, उस शाम दोनो को एक साथ एक मंच पर आना था। दुःख तो इस बात का है कि जगजीत सिंह जी के जाने के बाद भी ग़ुलाम अली ये सिलसिला बदस्तूर जारी रखे हुए हैं। 
कमल दुबे