जब भी कांकेर जाता हूँ, वहाँ और आसपास की पहाड़ियाँ देख कर सोच में पड़ जाता हूँ कि ये अपने आप बनी हैं या किसी ने इन्हे बनाया है?
इस बार भी अचानक अजय शर्मा जी के साथ कांकेर जाने का अवसर मिला, काम होने के बाद आदतन अजय भैया जंगल और पहाड़ियों की सैर पर निकल पड़े. हर पहाड़ियों में "बैलेंसिंग रॉक्स" की भरमार, ऊपर भी नीचे भी, कई जगह तो ऐसा लगता जैसे आसमान से पत्थर टपके हों और जम गये हैं और बस ---अब लुढ़के की तब लुढ़के? नीचे खड़े होने पर डर भी लगता है कि कहीं सर पर ना आ गिरें? पहाड़ियों के इर्द-गिर्द बसी बस्तियों को देख, अजय भैया चिंतित हो रहे थे "कभी ये पहाड़ियाँ हिलेंगी तो यहां क्या होगा"? लेकिन पीढ़ियों से कांकेर में बसे हारून रशीद जी ने बताया केवल एक बार कांकेर में पत्थर लुढक कर आये थे वो भी आज से दस-ग्यारह साल पहले, कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ था। वैसे हारून रशीद जी का एक कीमती शौक भी है मगर उसकी चर्चा बाद में।
इस बार भी अचानक अजय शर्मा जी के साथ कांकेर जाने का अवसर मिला, काम होने के बाद आदतन अजय भैया जंगल और पहाड़ियों की सैर पर निकल पड़े. हर पहाड़ियों में "बैलेंसिंग रॉक्स" की भरमार, ऊपर भी नीचे भी, कई जगह तो ऐसा लगता जैसे आसमान से पत्थर टपके हों और जम गये हैं और बस ---अब लुढ़के की तब लुढ़के? नीचे खड़े होने पर डर भी लगता है कि कहीं सर पर ना आ गिरें? पहाड़ियों के इर्द-गिर्द बसी बस्तियों को देख, अजय भैया चिंतित हो रहे थे "कभी ये पहाड़ियाँ हिलेंगी तो यहां क्या होगा"? लेकिन पीढ़ियों से कांकेर में बसे हारून रशीद जी ने बताया केवल एक बार कांकेर में पत्थर लुढक कर आये थे वो भी आज से दस-ग्यारह साल पहले, कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ था। वैसे हारून रशीद जी का एक कीमती शौक भी है मगर उसकी चर्चा बाद में।
मुझे तो लगता है मानो आदिकाल में कोई महामानव यहाँ आया होगा और फुर्सत के समय आसपास पड़ी चट्टानों और बिखरे पत्थरों को एक के ऊपर एक जमाता रहा होगा? कभी-कभी पिट्ठुल भी जमाया होगा, लेकिन खेलने के लिये साथी नहीं मिले होंगे तो सब यूं ही छोड़ गया होगा ?