बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

डंठल सहित ही रख लिया था
किताब में;
तुम्हारा दिया गुलाब ...
सूखी पत्तियों के साथ वो,
आज भी वहीँ पड़ा है,
निस्तेज़
और जिन काँटों की चुभन के डर से
कांपे थे मेरे हाथ .....
वो आज भी उसी डंठल के हैं साथ,
उतने ही तेज़.
अंदर तक गड़े होने के एहसास के साथ। 

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