रविवार, 7 अगस्त 2011

70 सालों से दोस्ती की अटूट मिसाल, Dainik Bhaskar, Bilaspur

 07-08-2011
आज भास्कर के बिलासपुर एडिशन में दोस्ती दिवस पर मेरे डैडी और प्रेम चाचा की मित्रता की चर्चा. पता चला कि लेखिका मंजुला जैन को प्रेम चाचा के पुराने पड़ोसियों टंडन परिवार ने आइडिया दिया था. संज्ञा जी, राजेश जी आभार
मंजुला जैन. बिलासपुर

पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करते हुए अगस्त के पहले रविवार को लोग दोस्ती के पर्व के रूप में सेलिब्रेट करते हैं, लेकिन ऐसे लोगों के लिए शहर के दो दोस्त मिसाल हैं जो 70 वर्षों से एक-दूसरे का सुख-दुख बांट रहे हैं।

विनोबा नगर निवासी सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया से सेवानिवृत्त रीजनल मैनेजर नारायण प्रसाद दुबे व क्रांतिनगर निवासी सेवानिवृत्त फूड कंट्रोलर प्रेमकुमार श्रीवास्तव की दोस्ती खपरगंज स्थित प्राइमरी स्कूल से शुरू हुई। उस समय दोनों कक्षा पहली में पढ़ते थे। स्कूली शिक्षा के बाद एसबीआर कॉलेज में दोनों ने बीए भी साथ ही किया। कॉलेज की शिक्षा के बाद श्री दुबे नौकरी के लिए भिलाई चले गए और श्री श्रीवास्तव अंबिकापुर। 13 साल तक वे दोनों एक दूसरे से नहीं मिल सके, लेकिन पत्रों के माध्यम से उनका संपर्क बराबर रहा। अभिन्न दोस्तों के बीच दूरी शायद ईश्वर को भी मंजूर नहीं थी, इसलिए 13 साल दूर रहने के बाद वे फिर मिले।

श्री दुबे का कहना है कि उन्हें प्रेमकुमार का शांत, गंभीर, अपने से बड़े अधिकारियों को लेकर चलने की कला ने इतना प्रभावित किया कि उसका अनुसरण उन्होंने भी किया। वहीं श्री श्रीवास्तव ने कहा कि नारायण की निश्छल, स्पष्टवादिता उन्हें काफी पसंद आई और वे उनके खास दोस्त बन गए। श्री दुबे ने कहा कि आजकल की दोस्ती दिखावे की है। इसके पीछे कहीं न कहीं स्वार्थ छिपा होता है। हमने दोस्ती को कभी भी सेलिब्रेट नहीं किया, इसे महसूस किया और हर पल जिया है। अच्छा मित्र मिलना किस्मत की बात होती है। जिस तरह बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता उसी तरह बिना मित्र के जीवन नहीं चल सकता। मित्रता अमर रहे और आखिरी सांस तक वे इसे शिद्दत से जीते रहे, यही उनकी इच्छा है।

बच्चों की शादी का उठाया जिम्मा

श्री श्रीवास्तव ने बताया कि उनकी बेटी सुनीता के विवाह के समय लड़का देखने जाने से लेकर सभी इंतजाम करने की जिम्मेदारी नारायण दुबे को दी गई थी। उनकी पसंद के लड़के से ही बेटी का विवाह हुआ। वहीं नारायण प्रसाद दुबे के
बेटियोंके विवाह का सभी इंतजाम प्रेमकुमार ने किया। परिवार के सभी छोटे-बड़े निर्णय दोनों की रजामंदी से ही होते हैं। एक दूजे पर संकट आने से पहले वे ढाल बनकर खड़े होते हैं।

दूसरों के लिए बने प्रेरणा

प्रेमकुमार व नारायण प्रसाद की घनिष्ठ दोस्ती उनके परिवार के लिए भी मिसाल है। उनके नाती-पोते भी उनके जैसी दोस्ती निभाने की तमन्ना रखते हैं। वहीं कॉलोनी व दोस्तों के बीच यह दोस्ती लोगों को प्रेरणा देने का काम करती है।
 
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आज पिताश्री ने मित्र के गुण पर
रामचरितमानस:किष्किन्धाकाण्
​ड की कुछ चौपाइयां सुनाई -

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥
जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा॥
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
जा कर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई॥
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥

1 टिप्पणी:

  1. जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातकभारी
    निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना
    जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥

    जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
    कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
    जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥2॥

    देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
    बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥
    देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥3॥

    आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
    जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥
    जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥4॥

    सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
    सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥
    मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥

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