अब मंच पर "हुल्लड़" नहीं होगा …
सत्तर के उत्तरार्ध में में एक नया प्रचलन शुरू हुआ, जब फिल्म शोले के चंद डायलॉग्स की ई पीज़ बाज़ार में आयीं, रिकॉर्ड प्लेयर्स तब चुनिंदा घरों में ही हुआ करते थे, चुनांचे इन्हें सुनने-सुनाने के नाम पर ही महफ़िलें जम जाती थीं, फिर वही हुआ कि रोज़-रोज़ सुनते हुए पूरे रिकॉर्ड कंठस्थ हो गये, जी भर गया! उन्हीं दिनों एक महानगर से छुट्टी बीता के लौटे एक सज्जन ने एक नई ई पी प्रतुस्त की और कहा आज इसे सुना जाये, हुल्लड़ मुरादाबादी की ई पी थी, हँसते-हँसते आँखे बाहर निकलने को हो गयीं, कमरे में क्या सारे मोहल्ले में हुल्लड़ हो गया, लोग शोले को भूल गये, पंजा लड़ायेगी? सब की जुबां पे चढ़ गया,,,,,,,,
कुछ बरस पहले बिलासपुर में उनका अंदाज़ आज भी कौंधता है..... "शेर को घास खिलाने की जरूरत क्या थी"?
नमन !
(फोटो नेट से)
सत्तर के उत्तरार्ध में में एक नया प्रचलन शुरू हुआ, जब फिल्म शोले के चंद डायलॉग्स की ई पीज़ बाज़ार में आयीं, रिकॉर्ड प्लेयर्स तब चुनिंदा घरों में ही हुआ करते थे, चुनांचे इन्हें सुनने-सुनाने के नाम पर ही महफ़िलें जम जाती थीं, फिर वही हुआ कि रोज़-रोज़ सुनते हुए पूरे रिकॉर्ड कंठस्थ हो गये, जी भर गया! उन्हीं दिनों एक महानगर से छुट्टी बीता के लौटे एक सज्जन ने एक नई ई पी प्रतुस्त की और कहा आज इसे सुना जाये, हुल्लड़ मुरादाबादी की ई पी थी, हँसते-हँसते आँखे बाहर निकलने को हो गयीं, कमरे में क्या सारे मोहल्ले में हुल्लड़ हो गया, लोग शोले को भूल गये, पंजा लड़ायेगी? सब की जुबां पे चढ़ गया,,,,,,,,
कुछ बरस पहले बिलासपुर में उनका अंदाज़ आज भी कौंधता है..... "शेर को घास खिलाने की जरूरत क्या थी"?
नमन !
(फोटो नेट से)
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