शनिवार, 26 सितंबर 2009

आस्था, आडम्बर, फूहड़ता..?

कल मैं हर साल की तरह नवरात्र में महामाया पर प्रोफाइल बनाने रतनपुर गया, साथ में बीबीबच्चे भी थे. लौटते वक्त सप्तमी के पदयात्रियों पर भी काम करने का इरादा था, सो गाड़ी में बच्चों के हाथ कैमरा रेडी रख ड्राइव कर रहा था. जगह-जगह पदयात्रियों की सेवा के लिए पंडाल लगे दिखे, जहां लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार फलाहार, पानी व अन्य चीजें रखे हुए थे. लगभग हर पंडाल में भजन भी बज रहे थे. सोचा कि इनके शॉट्स भी बनाता चलूँ, गाड़ी किनारे की और बिटिया से कैमरा ले फ्रेम बनाने लगा, तभी वहाँ खड़े युवकों और बच्चों कि नज़र कैमरे पर पड़ गयी और वो अचानक पंडाल के सामने आ, पूरे जोश में देवी गीत पर ही हाथ ऊपर कर, कमर हिला-हिला कर नाचने लगे. फ्रेम बनाना था सेवाभाव का और व्यू फाइंडर में नज़ारा कुछ और था? मेरे मुहं से निकला "मिल गया मौका भांड-मटक्का करने का..." मैंने कैमरा नीचे किया और गाड़ी आगे बढ़ा दी, बीबी-बच्चे मुंह दबा के खी-खी कर रहे थे, जहां जहां कैमरा निकालता कमोबेश एक सा नज़ारा. कृपा रही महामाया की कि कुछ पंडाल ऐसे भी मिले जहां मेरा मतलब निकल गया.

जैसे- जैसे अंधियारा बढ़ता गया पदयात्रियों का हुजूम बढ़ता गया, उनमें भी आस्था के साथ-साथ फूहड़ता का पूरा समावेश था. रास्ते में छत्तीसगढ़ के विधान सभा अध्यक्ष भी पूरे ताम-झाम के साथ पदयात्रा करते मिले, आगे पीछे तेज लाइटें, डी जे के अंदाज़ में तेज बजते भजन, वहाँ सब कुछ था आस्था, आडम्बर, फूहड़ता, नहीं दिखी तो सिर्फ वो गरिमा जो इस पदनाम के साथ होनी चाहिए? समझना मुश्किल था कि ये देवी की आस्था में पदयात्रा है या कोई चुनावी रैली या फिर कोई बारात?

उनसे बातचीत के दौरान माइक थामा मेरा बेटा थिर नहीं हो पा रहा था, मैंने माइक खुद थाम लिया. वापस गाड़ी में आया तो फिर वही खी-खी... मैंने अनजान बनते हुए पूछा "क्या हुआ"? बेटे ने जवाब दिया "पापा यहाँ भी तो वही था भांड-मटक्का?"

इति.

कमल दुबे.

२६-०९-०९.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें