रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली और धर्मयुग

होली और धर्मयुग
पत्रिकाओं से मेरा नाता हमेशा से ही कुछ अजीब रहा है.  जब मैं बच्चा था किसी ने हाथ में पराग' पकड़ा दी, उन दिनों वो किशोरों कि पत्रिका हुआ करती थी, मेरे किशोर होते तक पराग" बच्चों कि पत्रिका हो गयी, मैंने पहली धारावाहिक कहानी "बहत्तर साल का बच्चा" पराग में ही पढ़ी. चंदामामा से मेरा जुड़ाव नहीं हो पाया, पत्रिकाएं और भी थीं, गाहे-बगाहे उन्हें भी पढ़ता था. तभी किसी के यहाँ धर्मयुग का होली अंक पढ़ने को मिला, फागुनी हास्य से भरपूर, बीच के पन्नों (फुल पेज) में टेसू के फूलों के बीच एक अल्हड नवयौवना कि तस्वीर के साथ "यार कमाल हो गए" कविता, मेरा किशोर मन बाग़-बाग़ हो गया. वहाँ से सीधा बुक कार्नर गया( अंबिकापुर में तब वो पत्रिकाएं मिलने का एकमात्र स्थान था), काउंटर पर बैठे सेठी अंकल ने बताया कि बेटे धर्मयुग का होली अंक तो आते ही पूरा बिक जाता है' मैंने जिद की, उन्होंने बाद में मंगा कर देने की बात कही. बाद के वर्षों में जब तक धर्मयुग छपती रही मैं जहां भी रहता, उसकी एडवांस बुकिंग करता रहा और होली में धर्मयुग की रचनाएँ पढ़ कर, होली की महफ़िलों में धाक जमाता रहा, रेडियो में भी जिक्र करता रहा. अफ़सोस की वो बंद हो गयी.
कुछ रचनाएँ आज भी याद आतीं हैं जिन्हें मैंने कई जगह पोस्ट किया है, कुछ यहाँ भी डाल रहा हूँ, पूरी तरह से याद नहीं हैं, रचनाकारों के नाम भी पूरे याद नहीं हैं, अगर किसी को पूरा याद हो तो मुझे जरूर अवगत कराएं-
१. ----?
टेसू वन दहके,
मौर रसाल हुए,
चितवन बहके,
गाल गुलाल हुए,
......... अंग अंग महके, यार कमाल हुए!
२. चन्द्र ठाकुर-
बुरा न मानो होली है, चुनरी गीली कर लेने दो,
ये रस की ऋतू, वय का उत्सव, बीत न जाए बिना मनाये,
लज्जा से अरुण कपोलों पर कुछ आज रंगोली कर लेने दो,
बुरा न मानो होली है, चुनरी गीली कर लेने दो....... .
३. नीरज-
प्यार के बोल तो बोलें सभी
पर प्यार की की न वो अब बोली रही है,
कान्हा की छेड़ न छाड़ रही वो अब
रहने को सिर्फ ठिठोली रही है,
रंग कहाँ पिचकारी कहाँ वो अब,
खाली गुलाल की झोरी रही है,
राग न वो अब, फाग न वो अब
होली न वो अब होली रही है.....
कमल दुबे.

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